Saturday, September 15, 2012

कुसूर-ऐ-दिल

कुसूर क्या है दिल का
कि दर्द में इस कदर डूब जाता है 
जिस दिल में कभी वो बसा करते थे
आज वहां तन्हाई बसर करती है

शिकवा गर हम कभी करें तो क्या करें
शिकवा गर हम उनसे करें तो क्या करें
कि दर्द दिल में उनके भी कुछ इस कदर है
सिर्फ वो अपनी जुबां से बयान नहीं करते

चाहते तो हम आज भी हैं उन्हें 
कि चाह कर भी उन्हें रुसवा नहीं कर सकते
दर्द को अपनी किस्मत मान कर
हम ज़िंदगी बसर कर लेंगे

गर रुख उन्होंने मोड़ा है हमसे आज
तो इसे अपनी खता का सिला मान लेंगे
मोहब्बत परवान ना चढ़ी तो क्या
हम मोहब्बत के बगैर जीना सीख लेंगे

ऐ ज़िन्दगी गम को किस्मत हम मान
ता उम्र तन्हा तेरे साथ जी लेंगे
दास्ताँ जो उनसे ना कह सके हम कभी
संग तेरे हम उसे बिसार देंगे||

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