Friday, September 30, 2016

शुक्राना बद्दुआ का

बद्दुआ में भी तो शामिल है दुआ
तो क्या हुआ तुमने हमें बद्दुआ दी
कहीं तुम्हारे जेहन में दुआ के वक़्त
इस काफ़िर का नाम तो शुमार हुआ

कि ज़िन्दगी भर की बद्दुआओं में
इस काफ़िर का नाम लेकर
अपनी इबादत में ऐ ख़ुदा
देने वाला मेहरबाँ तो हुआ

गर दुआओं में मेरा नाम ऐ खुदा
तेरे इल्म में ना आया कभी
तो शुक्रगुज़ार हूँ मैं उनका
जिन्होंने बद्दुआ में नाम शुमार किया

कि ऐ खुदा, किसी बद्दुआ से ही सही
कभी तूने इस काफ़िर को देखा तो होगा
देखा तूने ही होगा कि नाचीज़ क्या है
देखा तूने ही होगा कि क्या देना है।।

Friday, September 23, 2016

मैं शिव हूँ, शिव् है मुझमें

मैं शिव हूँ, शिव् है मुझमें 
ये राष्ट्र मेरा शिवाला 
हाँ हूँ मैं शिव और शिव है मुझमें 
पीता आया हूँ बरसों से मैं हाला 

एक युग बीत गया तपस्या में
फिर भी नरसंहार हुआ है 
एक युग हुआ मेरे आसान को 
फिर भी विनाश नहीं है थमता 

क्या भूल गए तुम मुझको 
यदि पी सकता हूँ मैं हाला 
यदि पी सकता हूँ विष का प्याला 
तो तांडव भी मेरा ही नृत्य है 

जब जब जग में हुआ अँधेरा 
जब जब किया पिशाचों ने नृत्य 
धुनि से अपनी मैं उठ कर हूँ आया
तांडव कर त्रिशूल को रक्त है पिलाया 

मत बूझो मुझसे मृत्यु की पहेली 
मत भूलो मेरे त्रिनेत्र की होली 
मैं शिव हूँ और शिव है मुझमें 
भोला हूँ किन्तु संहार बसा है तांडव में॥ 

Thursday, September 22, 2016

झुक कर चलना सीखो

मधुकर को मधु पीने से
कभी मधुमेह नहीं होता
मधुर भाषा में वार्तालाप से
कभी किसी को रंज नहीं होता
कभी किसी के मुख पर
सच बोलने से
रिश्तों के मायने नहीं बदलते
बदलते हैं तो केवल
मानव के विचार विस्मित होने को

मधुकर को मधु पीने से
कभी मधुमेह नहीं होता
कहीं कभी झुकने से
मानव का कद छोटा नहीं होता
होता है यदि कुछ छोटा
तो होता है विचारों का कुनबा
संकीर्णता विचारों के चलते
किसी का विकास नहीं होता

जीवन में झुक झुक चलने से
कोई मलाल नहीं होता
समय के सामने ना झुकने से
समय पर प्रहार नहीं होता
समय स्वयं बलवान है
कभी वाही जतलाएगा
जितना तुम उससे अकड़ोगे
उतना नीचे तुम्हें ले जाएगा

स्मरित केवल इतना कर लो
के तीर चलने को कमान पीछे हटती है
तोप का गोला दागने पर
तोप भी पीछे हटती है
मंदिर में नमन करते हो तुम झुककर
लेकिन मानवता के आगे झुकने को
तुम हुंकारते हो अकड़कर
फिर भी झुक कर चलने वालों की
जीवन में कभी हाट नहीं होती।

ज्ञान बंटोर ले

यदि कहीं ज्ञान बँट रहा है 
तो तू ज्ञान बंटोर ले 
यदि कोई ज्ञान बिखेर रहा है 
तो तू ज्ञान बंटोर ले 

ज्ञानवर्धन कोई क्रीड़ा नहीं 
वर्षों की तपस्या है
ज्ञान से तू समृद्ध होगा 
ज्ञान से तू बलवान होगा 

ज्ञान का कोई प्रदर्शन नहीं होता 
कहीं बंटता है तो कोई पाता है 
ज्ञान कभी ख़त्म नहीं होता खोता नहीं 
ज्ञान केवल बदलता है अपना स्वरुप 

कभी कोई ज्ञान प्रदर्शित नहीं करता
 यह एक नकारात्मक सोच है 
न ग्रसित हो इस हीं भाव से कभी 
बस तू उस ज्ञान को बंटोर ले 

Tuesday, September 20, 2016

मृत्यु पर राजनीति

वीरगति को प्राप्त कर गए
परायण कर गए संसार से
देखो उनकी माता रोती है
पलकों में लहू के अश्रु लिए
अच्छे दिन को तुम तकते हो
उनकी वीरगति के सहानुभूति में
यदि अच्छे दिन मोदी लाएगा
तो परिभाषित करो अच्छे दिन को
लहू शास्त्रों का तब भी बहा था
जब रामराज्य था सतयुग में
अब तुम कलजुग में जीते हो
किसी की मृत्यु में अच्छे दिन खोजते हो

Monday, September 19, 2016

बहुत हो चुका परिहास

रक्त की आज फिर बानी है धारा 
फिर रहा मानव मारा मारा 
हीन भावना से ग्रसित अहंकारी 
फैला रहा घृणा की महामारी 

वर्षो बीत गए उसको समझाते 
हाथ जोड़ जोड़ उसे मनाते 
फिर भी ना सीखा वो संभलना 
आता है उसे केवल फिसलना 

सन सैंतालीस में खाई मुँह की 
सन पैंसठ में भी दिखाई पीठ 
सन इकहत्तर में खोया उसने अपना राज 
फिर भी कारगिल में दिखाए अपने काज 

बारम्बार उसे समझाया 
किन्तु उसे तनिक समझ ना आया 
करता है हर बार मनमानी 
पहुंचाई उसने इस बार उरी में हानि 

क्यों ना इस इस बार उसे हम दौड़ाएं 
उसका पाठ उसे ही पढ़ाएं 
बहुत हुई सेना की बलिदानी 
अब बता दो पराक्रम का नहीं कोई सानी 

बहुत प्राप्त कर चुके बेटे वीरगति 
अब और नहीं सहेंगे सिन्दूर की क्षति 
इस बार बदल दो इतिहास 
बहुत हो चुका सीमा पर परिहास 

दो बूंग लहुं उनका भी बहा दो 
कितना बल है सपूतों में दिखा दो 
अब और मत करो कोई देर 
कर दो सत्ता के लालची को तुम ढेर 

Friday, September 9, 2016

दरख़्त

शाख वो काट रहे, उसी शाख पर बैठ
कि कुदरत की नेमत पर कर रहे घुसपैठ
शाख पर हुई चोट से दरख़्त सकपकाया
आंधी के झोंके में उसने उस इंसां को गिराया
चोट लगी उसपर तो इंसां चिल्लाया
शर्मसार नहीं हुआ ना उसको समझ आया
उठा कुल्हाड़ा उसने दरख़्त पर चलाया
इस हिमाकत पर उसकी सरमाया भी गुस्साया
आसमाँ में बादल गरजे, धरती भी गरमाई
कुछ पलों उस मेहमाँ को माटी ने भींचा
उस दरख्त की जड़ों को उसके लहू से सींचा
भूला भटका था वो जिसका वजूद मिट गया
इतना भी ना समझा उसने की माटी में मिल गया
उसी दरख़्त के साए में मिला था उसको आराम
उसी दरख़्त के पत्तों से बिछा था दस्तरखान
काटने उस शाख को तू चला था इंसान
जिसपर लगे फलों की मिठास से था तू अंजान