Tuesday, February 13, 2018

जीवन द्वंद्व में लीन

जीवन द्वंद्व में लीन है मानव 
ढूंढ रहा जग में स्वयं को 
नहीं कोई ठोर इसका ना दिखाना 
दूर है छोर, ढूंढने का है दिखावा 

नहीं किसी को सुध है किसी की 
अपने ही जीवन में व्यस्त है हर कोई 
ढूंढ रहा है हर कोई स्वयं को 
छवि से भी अपनी डरता है हर कोई 

अपनों से भी परे है हर कोई 
जीवन यापन की कला आज है खोई 
दर्पण में ढूंढते हैं अपना प्रतिबिम्ब 
प्रतिबिम्ब में ढूंढते है अपना अवलम्बन 

दिखता नहीं जीवन का अर्थ कहीं 
जीवन की गहराई में जीवन ढूंढता हर कोई  
खोई आज नातों ने भी अपनी महत्ता कहीं 
क्योंकि ढूंढ रहा आज स्वयं को हर कोई 

नहीं ईश्वर के लिए भी आज समय 
क्योंकि ढूंढ रहा आज स्वयं को हर कोई 
दर्पण में ढूंढते हुए अपने प्रतिबिम्ब 
जीवन द्वंद्व में लीन है आज हर कोई 


Friday, February 9, 2018

अभी कुछ दिन ही तो बीते हैं

निगाहों में तेरी ज़िंदगी अपनी ढूँढते है
जीने के लिए तेरी बाहों का आसरा चाहते हैं
दिन कुछ ही गुज़रे है दूर तुझसे
फिर भी ना जाने एक अरसा क्यूँ बिता लगता है 

ज़ुस्तज़ु है मेरी या है कोई आरज़ू
कि आँख भी खुले तो तेरी बाहों में 
और कभी मौत भी आए तो 
आसरा तेरी निगाहों का ही हो

हर लम्हा हर पल ज़िंदगी का
दिल बस तुझे ही ढूँढता है 
कि जिस ओर भी निगाहें जाती है 
अक्स तेरा ही इन मंज़रों में दिखता है

निगाहें हर ओर ढूँढती हैं सिर्फ़ तुझको
कि अब तो नींद भी आती है तेरे ही आग़ोश में 
जीने के लिए अब तेरी बाहों का आसरा चाहते हैं
खुदा से ख़ुद को मिलाने के लिए तेरा साथ चाहते हैं 

हर लम्हा हर पल दिल बस तुझे ही ढूँढता है 
आरज़ू है मेरी कि आँख भी खुले तो तेरी बाहों में
अभी कुछ दिन ही तो बीते हैं दूर तुझसे 
फिर भी ना जाने एक अरसा क्यूँ बिता लगता है

मर्यादा में जीना सीखो

आनंदन नहीं दिखता इनको
जो अफ़ज़ल पर रोए हैं
राम इनको काल्पनिक दिखता
बाबर इनका महकाय है

रामायण इनकी है कहानी मात्र 
किंतु शूर्पणखा एक किरदार है
महिसासुर इनको खुद्दार दिखता
दुर्गा नाम से इनका क्या पर्याय है

राष्ट्र विरोधी कथनो और नारों में 
दिखती इन्हें अपनी स्वतंत्रता है
वन्दे मातरम के उच्च स्वर में
गूँजती इनकी असहिष्णुता है 

कलबुर्गी की हत्या पर सरकार नपुंसक थी 
किंतु संतोष की हत्या पर बस चुप्पी है
घोड़े, कुत्ते का जीवन उनको जो प्यारा है 
 बिन गौ माँस का खाना उनका अधूरा है

होली पर बहते पानी पर रोते हैं
दिवाली की आतिशबाज़ी से डरते हैं
बात वहीं हो जब रोमन नव वर्ष की 
बाँछे इनकी खिल खिल उठती हैं

भूल गए हैं ये आज़ाद और भगत सिंह को
कसाब इनका बेटा ही लगता है
लाखों प्रकरण विचाराधीन है न्यायपालिका में
फिरते हैं अर्धरात्रि में आतंकी को क्षमा दिलाने

आज फिर एक बार राष्ट्र ने पुकारा है
मर्यादा पुरुषोत्तम ने नाम से हुंकारा है
तज अपनी मदभरी चाल को 
मर्यादा में फिर जीना सीखो



मात-पिता

नैनो की भाषा ना समझ पाए 
ना समझ पाए उनके कुछ संकेत
अधरों से वो कुछ बोल ना पाए
हृदय को हमारे छू ना पाए

बढ़े थे जिस डगर पर साथ उनके
उसपर झुककर उन्हे संभाल ना पाए
एक छोर तक साथ चले वो हमारे
उसके आगे हम उन्हें थाम ना पाए

कुछ भाषा ना हम पढ़ पाए 
कुछ शब्द वो बोल ना पाए
उनके सहारे चलना तो सीखा
किंतु साथ उनके हम चल ना पाए

पंछी बन उड़ चले वो गगन में
नाता हम उनसे जोड़ ना पाए
बरसों जिनसे प्रेम ही पाया
जीवन में उन्हें रोक ना पाए

आज भी जब देखते हैं उस छोर पर
अश्रुधारा ही बहती है नैनो से
कंठ से सवार नहीं निकलते हैं
जब स्मरण में उनकी छवि है आती।