Wednesday, January 16, 2013

अधूरी कविता

अधूरी भ्रान्ति अधूरे क्षण
अधूरे हैं जहाँ सारे प्रण
अधूरी शांति अधूरे रण
अधूरे हैं यहाँ सत्ता के कण

राष्ट्र ये मेरा आज अधुरा है
सत्ता के भूखों से भरा है
जीवन यहाँ आज निर्बल है
जनता की सोच भी दुर्बल है

अधूरी सोच नेताओं की
अधूरी होड़ प्रशाशन की
अधुरा यहाँ हर कृत्य है
अधूरे सपने यहाँ अपने हैं

राष्ट्र आज तो स्वतंत्र है
कहने को यहाँ प्रजातंत्र है
फिर भी लगता अधुरा है
चूंकी जनता यहाँ निर्बल है।। 

Wednesday, January 9, 2013

राजनीति का खेला

देखो मेरे देश में राजनीति का खेला
प्रजातंत्र में लगता है राजतंत्र का मेला
यहाँ नहीं है कोई किसी का, ना गुरु ना चेला
बस सत्ता की दौड़ की यहाँ होती हमेशा बेला

जनता चाहे भूखो मरे, या जले उसकी चिता
निताओं को केवल रहती है अपनी गद्दी की चिंता
नहीं यहाँ आदमी आदमी को है कुछ गिनता
अपने घर का चूल्हा जले यही सोच में हर कोई फिरता

देश में हर और है केवल ये तेरा ये मेरा का नारा
गली मोहल्ला भी करता जात पांत का बंटवारा
जलता है इसमें देश तो क्या जाता हमारा
हमारे नेताओं को तो केवल पैसा है सबसे प्यारा

हर घटना पर यहाँ लगता राजधानी में है डेरा
सत्ता के कटघरों में लगता जनता का फिर फेरा
हर घटना का बनता यहाँ राजनीतिक घेरा
पक्ष-प्रतिपक्ष देते अपने ही तरह से ब्योरा

होती आलोचना हर घटना की नेताओं द्वारा
देते वो आश्वासन ना होगा ऐसा दुबारा
फिर भी हमला होता देश की जनता पर
बैठे रहते हमारे नेता अपने घरों में दुबक कर

जो होता यहाँ कहते हम जनता पर अन्याय
नेता बोलते भूल अपना कर्म और ध्येय
राह भटकता पथिक है यहाँ हर नागरिक
दबा देते उसकी वाणी कह घटना को पारिवारिक||


निष्पक्ष जांच

घोटालों के इस देश में 
हर कोई करता घोटाले है
जब सामने मामला आता है
हम एक ही आलाप सुनते हैं

इसकी निष्पक्ष जांच की जावेगी

चीरहरण जब यहाँ होता अबला का
सरकार फिर वही बात दोहराती
जनता के आक्रोश को दबाने को 
फिर वही आलाप लगाती

इसकी निष्पक्ष जांच की जावेगी

बलात्कार यहाँ होता बहु बेटियों का
होता उनका घोर दमन
फिर सरकार कहती हमसे 
सूनी हमने तुम्हारी बात

इसकी निष्पक्ष जांच की जावेगी

सत्ता के कटघरों में जाने कितने
भक्षक बैठे हैं बन रक्षक
न्यायपालिका फिर हमसे कहती
हम हैं बेबस, सत्ता है हमसे ऊपर

उठे बात कहीं चारा घोटाले की
या जो दुरभाष की ही बात
कभी तो अपहरण का चर्चा
या हो संसद पर हमला

हर बार है सरकार का बस यही एक नारा
भारत है जग में सबसे प्यारा
आतंकवाद की हम करते हैं निंदा
भले जला दो हमारे सैनिकों को ज़िंदा

हम फिर भी निष्पक्ष जांच करेंगे
अपराधियों को जनता के लहू से पालेंगे|||

सैनिक की चेतावनी

ना समझ हमारी सहनशीलता को कायरता
हम तुझे छठी का दूध याद दिला सकते हैं
ना हमें तू बर्बरता का रूप इतना दिखा
हम आज भी तेरे ह्रदय से लहू निकाल सकते हैं

जिनकी तुम भीख पर पलते हो 
उनकी वाणी हम मान नहीं सकते
हमारी प्रभुसत्ता को ना दो चुनौती 
ना बनाओ हमें तुम अपनी पनौती

गर हम अपनी पर उतर आये कभी
फिर एक बार इतिहास दोहराएँगे
तब हमने तुम्हारा भूगोल बदला था
अब हम तुम्हारा इतिहास बदल देंगे

ना समझो हमारी सहनशीलता को कायरता
हम आज भी तुम्हें दफ़न कर सकते हैं
जैसे तुम्हें पूरब से भगाया था
वैसे ही पश्चिम से नामोनिशान मिटा देंगे||




The Public

They would pay bribe to officers
Then they would oppose corruption
They would be the mute spectators
Then they would spearhead protests
When they feel its overdone
They protest with rage & anger
When they feel anger won't work
They conduct candle light vigil
When they feel candles burnt off
They call for hunger strike
When they feel nothing works
They get back to their business
This is the public for you
It comes from all walks of life
It learns to face all the heat
It keeps succumbing to pressures
But when it feels its overdone
It transforms to be the mob
The mob that is faceless
The mob that turns out to be ruthless
When its anger subsides
It turns back to be the public
It reaches back to its shell
To get back to Business as usual 



मेरे दुश्मन

मैं एक सैनिक हूँ, करता हूँ देश रक्षा
देश सेवा के लिए रहता हूँ मैं तत्पर
जान न्योछावर मेरी देश हित में
कभी शूरवीर तो कभी शहीद हूँ मैं

करता हर पल मैं अपना कर्म हूँ
दुश्मन का भी करता आदर हूँ
पर ललकार नहीं मुझे उसकी सहन
प्रज्वल होती उससे हृदयाग्नि प्रबल

उत्तर है मेरे पास उसके हर वार का
बन सकता हूँ मैं श्रोत विध्वंश का
कर सकता हूँ मैं तांडव मौत का
पर नहीं आता मुझे रूप प्रतारणा का

वीर हूँ मैं क्रूर नहीं अपने दुश्मन सा
नहीं करता मैं अत्याचार उसपर 
आदर करो शहीदों का यही मेरी चाह है
ना करो उनके विकृत उस्न्की मृत देह को||
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This Poem has been written with the aspect and the Ghastly act by Pak Army by crossing the LOC and killing two Indian Soldiers.  As if that was not enough, they mutilated the Bodies as if they were not Human, but Beasts.....Time for India to forget peace and show that the tolerance is far over now!!!!!

Tuesday, January 8, 2013

सिर्फ तुम

ज़िन्दगी में देखी तिजारत बहुत
बहुत देखी बेवफाई
ना कोई उम्मीद थी कहीं
ना था हमारा कोई सपना

दर दिन तरसते थे 
खोजते थे हम अपनी ज़िंदगी
ना कोई और हसरत थी
ना थी उम्मीद-ऐ-वफ़ा कोई

दिन बीते, बीते महीनो साल
ना हुई ज़िंदगी फिर भी बहाल
भटकते रहे दर दर हम यूँही
ना हुई ख़त्म तलाश-ऐ-ज़िंदगी कही

फिर उस पल उस लम्हे में तुम मिली
ऐसा लगा जैसे जिंदगानी मिली
तुम आई तो लगा जैसे आई बहार
तुम्हारे आने से हुई खुशियों की बोछार

साथ अपने तुम लायी मेरी ज़िंदगी
सिला दे गयी आखिर मेरी बंदगी
तुम्हारा आना है मेरे खुदा की नेमत
तुम आई बनकर खुदा की रहमत

कर्मो-ईमान से मैं तुम्हें चाहता हूँ
इश्क में तुम्हारे मैं शामो-सहर जीता हूँ
सिर्फ तुम हो मेरी जिंदगानी में आज
तुम्हारी हंसी है मेरी जिंदगानी का साज़

हसरत बस यही है अब हमारी
कि बिताएं बाकी ज़िंदगी साथ तुम्हारे
साथ तुम्हारे इबादत करूँ मैं उस खुदा की
तिजारत का अंत हुआ नेमत से जिसकी||


Monday, January 7, 2013

Boat of Insecurity

Come and Sail in the boat of insecurity
In the country of unity in diversity
You wouldn't be surprised with insensitivity
That prevails in the situations with disparity

There is a certain law and order
Something that is neither slim nor broader
This make the criminals tougher and bolder
With courage they rub their shoulder

Plight is the only support of citizens
Curbed are where the thoughts of netizens
Criminals here roam around in society
This is what kills my curiosity

Moving out freely is unsocial here
Politicians also keep switching their gear
They make statements against the victim
They call it as a fault of the victim

Where should we go and pray
When criminals are found in all the array
Politics here is so corrupt and tainted
Criminals have support of politics painted

Real legislation here remains in draft
The situation might grow low and graft
Who would hear our plea and our pain
When everyone is busy with own-self's gain !!

लम्हात

आने से उनके कुछ लम्हे बदल से जाते हैं
उन लम्हों में हमारी ज़िंदगी बदल सी जाती है
चंद उन लम्हों की खातिर जीते हैं 
कि उन लम्हों में हमारी कायनात बदल जाती है 

जिन लम्हों में उनका साया नसीब होता है 
उन लम्हों में हमारी तकदीर बदल जाती है 
हसीं हर जर्रा हर खिजाब नज़र आता है 
उस लम्हे में ज़िंदगी सिमट आती है 

उन लम्हात का आलम कुछ यूँ  होता है 
कि खुद की खुदाई का अहसास होता है 
कुछ मंज़र  कदर होता है 
कि उनकी नज़रों में नशा शराब का होता है 

गर वो नहीं तो वो लम्हात नहीं
बिन उनके ये कायनात नहीं
उन लम्हों को जीने के लिए ऐ खुदा
ना कर हमें उनसे इस कदर जुदा


Sunday, January 6, 2013

चंद् मुक्तक - २

देश के नेता जब हो चोर
तो कैसे ना हो संसद में शोर
हर पल लूटें जो देश की अस्मत
तो कैसे जागे नागरिकों की किस्मत

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जहाँ न्यायपालिका करे उनकी रक्षा
जहां न्यायाधीश मांगे उनसे भीक्षा
जहाँ मिले उनसे गुंडों को दीक्षा
कैसे बने वहां नागरिकों की आकांक्षा

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जहाँ देश के नेता करें बलात्कार
ना सुने न्यायपालिका चीत्कार
कहाँ लगाये फिर हम गुहार
कौन सुनेगा नागरिकों की पुकार

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अस्मत जब देश की ही लूट चले
बेटियों की अस्मत से जब वो खेलें
कहाँ जाएंगे लगाने हम पुकार
किसकी हम करेंगे यूँ गुहार||


हर पल जीवन के

जीवन के हर पल मैं गहराइयों में उतर जाता हूँ
तेरी बाहों में अपनी दुनिया बनाये जाता हूँ
तू पास रहती है तब तुझमें खो जाता हूँ
दूर तू जब होती है, और तेरा हो जाता हूँ

हस पल जीवन का मैं तेरा बन रहता हूँ
तेरे टेसुओं में अपनी दुनिया सजाता हूँ
पास रहती है तब तेरे दिल की आवाज़ सुनता हूँ
दूर जब होती है, तेरे दिल की आवाज़ बन जाता हूँ

तेरे नैनों की गहराइंयो में जीवन बिताये जाता हूँ
तेरे साँसों की खुशबु को जीवन खुशबु बनाये जाता हूँ
पास जब होती है तब तुझमें खो जाता हूँ
दूर जब जाती है, तेरी यादों में खो जाता हूँ

हर पर जीवन के, मैं तेरा हुआ जाता हूँ
जितना तुझे जानता हूँ, उतना तेरे हुए जाता हूँ
तेरी बाहों में अपनी दुनिया बनाये जाता हूँ
हर पल जीवन के, तेरे दिल की आवाज़ बन जिए जाता हूँ||

Thursday, January 3, 2013

स्त्री के विचारों का उदगार

विगत दिनों में जो घटित हुआ, 
उससे मन बड़ा ही आहत हुआ|
चंद् विचार मन में ऐसी आये 
कि एक कविता का सृजन हुआ 
करती है कविता एक स्त्री के विचारों का उदगार
कि हुआ कैसे उसके औचित्य का प्रचार....
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माँ की कोख में सोती जब मैं
जग मुझे चाहे मारना
जब ले जन्म आऊँ मैं जग में
धरा पर मुझे चाहे लिटाना

बचपन से ही सहा मैंने भेदभाव
रहा मुझे सदा ही सुखों का अभाव
कोई कहता ऐसा करो 
तो कोई कहता वैसा करों

खिलोनो से रखा मुझे सदा दूर
ना हुई कभी जीवन में भोर
कहा कभी मुझे रखो मुंह बंद अपना
सीखो जरा संसार में दुःख सहना

प्रताड़ना का था ना कोई अंत
कैसे करती मैं हृदयाग्नि का अंत
दमन बहुत सहा मैंने अपना
किन्तु दब के रहना ना था मेरा सपना

क्यों मैं कुछ सुनु, क्यों प्रताड़ना सहूँ
स्त्री हूँ मैं, हूँ मैं जग जननी
भगवान् बन तू बैठा जग का
पर बिन मेरे ना है तेरी सृष्टी

क्या यही सोच हुआ था मेरा सृजन
जब होना ही था मेरे अस्तित्व का दमन
उठ तू खोल अपना त्रिनेत्र
वज्र उठा कर तू दुष्टों का विनाश||