Wednesday, August 22, 2012

The Mob - Just Knows to Blow the Cob

Sitting in the Comfort of my Home
I was looking at the distant Dome
Form this Distance I could not make out
What was it what they wanted to Carve Out

Morning when I woke up from the sleep
Reading the news, my breadth stuck-in deep
I popped out in the balcony
Trying to look all Alchemy

The Dome was all shattered
Ruthlessly it was battered
Then I came to know
They were trying to make the Dome bow

What a shame to the society it is
Killing the holy person called priest
They go blind when they turn in mob
Zombie they become to blow the cob

The mob that forms known no boundary
For them everyone is just a sundry
They don't realize what they start
For they just tear own soul & body apart

The Mob doesn't follow any religion or faith
They just love to suck out the last breadth
They just close their eyes and Walk free
Only to end Civilization and LIfe's Spree

Sunday, August 19, 2012

सुखा सावन

अबके बरस सावन सुखा बीत गया
ना पपीहे की प्यास बुझी 
ना प्यासी धरती को मिला पानी
सूखे खेतों में बैठ, किसान तक रहा अपनी हानि

क्या जी रहे हैं इस धरा पर इतने पापी
जिनके पाप सह प्यासी धरा है काँपी
क्या जन जीवन के लहू से सिंची है धरा
कि ना मिली उसे सावन में नदिया की धारा

अबके सावन जब आया, हुंकार मची चंहूँ दिशा
लहू के चीत्कार से क्या देवों को ज्ञात हुई मानव मंशा
छोड़ देवभक्ति क्या मानव चला दानवों की राह
क्या अधर्मी मानव के कर्मो से हुआ सावन का दाह

अबके बरस बीत गया सुखा सावन
ना हुआ धरा पर जन जीवन पावन
पापों से थी लज्जित धरा
ना मिला उसे पानी, ना नदिया की धारा

Devil's Rise

With the darkness of the Night
Darkness rises in my heart
With the Sun no more in the Horizon
The Beast can be seen in his black gown

The Saint sets to the rest with the dusk
Devil comes out of his disguise wearing the musk
All that was good becomes the case of past
Devil's flag blows out in the full mast

Sainthood is now the talk to leave you aghast
Devil is the reality that is going to last
Seeking revenge is going to be his attitude
If required he would cover the latitude

Don't seek an answer to Devil's rise
For he would not have been around
If you ever would have been wise
You are the one to tear off his disguise
Now pay the price that you made him rise
There is nothing beneficial now to be nice


यादों की मय्यत

दिन ढले कहीं छाँव दिखती है
सूरज की तपिश से रहत मिलती है
शाम के समय कदम उठते हैं
घर को चलते हुए ये थमते हैं
कि कहीं दिल के किसी कोने में
याद तेरी मुझे सताती है
ठिठके से ये कदम यूँ मुडते हैं
कि राह छोड़ घर की मदिरालय ढूंढते हैं

दिन ढले कहीं जब शाम होती है
दिल में तेरी यादों की तड़प होती है
अब तो शराब से भी नाता ना रहा मेरा
कि कमबख्त भी तेरी ही अदा दिखलाती है
छोड़ ये नाते ये रिश्ते ये तसव्वुर की दुनिया
हम तो अपने ही घर को चले जाते हैं
जिस दिल में तेरी वो याद बसर करती थी
उसे सरे राह हम घायल किये जाते हैं

छोड़ ये नाते ये रिश्ते ये तसव्वुर की दुनिया
हम अपनी ही धुन में जिए जाते हैं
तेरे घर की राह हम भूल चुके हैं कब के
अब तो तेरी यादों की मय्यत सजाते हैं
दिन ढले जब शाम होती है 
हम दियों में तेरे अक्स जलाते हैं
दिल के जिस कोने में तेरी याद बसर करती थी
उस कोने में ही उन यादों पर हार चढाते हैं||

Saturday, August 18, 2012

पहेली - नैनों की भाषा


अठखेलियाँ करते तेरे ये नैना
दिल का मेरे हरते चैना
ना जाने बोलते ये कौन सी भाषा
जाने सुनाते हैं ये कौन सी गाथा

अल्हड कहूँ मैं इन्हें या कहूँ चितचोर
मृगनयन देख तेरे ह्रदय में जैसे नाचे मोर
जब देखूं तेरे नैनों में जागे हर अभिलाषा
पर समझ ना पाऊं कहे क्या ये, कहे कौन भाषा

छंद कहूँ, कविता लिखूं, करूँ कैसे मैं अभिव्यक्ति
देख तेरे नैनों में रही ना अब ये शक्ति
अठखेलियाँ करते तेरे ये नैना, हरते मेरा चैना
अनजान उनकी भाषा से, दूभर है मेरा जीना

आज बैठ संग तू मेरे बूझ मेरी ये पहेली
बिन बूझे इसके कैसी ये होली, कैसी दिवाली
संग मेरे तू चलते चलते गाथा अपनी बतला
तेरे नैनों की राह में भटके पथिक को राह दिखला




राजनीतिक अराजकता

था वो मेरा देश जिसमे बसा करता था सोहार्द्र
आज उस देश को जला रही है इर्ष्या की अगन
देखता जिस और हूँ दिखती है बंटवारे की छवि
गणतन्त्र कहलाने वाला मायातंत्र का बना निवाला

करो या मरो था जिस देश को कभी प्यारा 
आज उस देश में गूँज उठा मारो मारो का नारा
राजनीति थी जिसकी कभी सर्वोध्धार
आज वही धर्म को बाँट रही बारम्बार

धर्म के नाम पर अधर्मी बना हर वो नागरिक
काल के ग्रास को चढाता जो नरबली
कहता खुद को जो धर्मं का रक्षक
वो आज बना धर्म की राजनीति का एक प्यादा

सत्ता के मोह में बना राजनेता हिंसक
धर्म के मर्म को मोड रहा बन धर्म का शुभचिंतक
ना है उसे कोई लाज ना उसे कोई पीड़ा
मरता है गर कोई तो उसके लिए है वो कीड़ा

पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्खिन
चहुँ और दिखता है मंजर राजनीति की कुटिलता का
विस्मित हूँ मैं कि कैसी है ये राजनीति
फैला अराजकता का राज कौन सेक रहा अपनी रोटी

Thursday, August 9, 2012

वो लम्हा

अनजान हम सफर सिफर का तय कर रहे थे
कुछ लम्हात उनसे दूर जी रहे थे
वक़्त के दरिया में हम जिंदगी जी रहे थे
ना था कोई गिला ना जिंदगी से कोई शिकवा
तन्हाई के आलम में हम सबर कर रहे थे
कहीं बादलों से घिरे बरसात को तरस रहे थे

ना वो रहे साथ हमारे ना उनके ख्याल 
कि अब तो यादों के दरमियाँ ही
हम हर पल उनका अहसास कर रहे थे
हर सूं दिखाई देती थी सूरत उनकी
कि दिल के किसी कोने में
वो अब भी बसर कर रहे थे

मशरूफ वो थे, खुशियों के दामन में
मशरूफ थे हम भी, तन्हाई के आलम में
ज़िंदगी से बेखबर हम जिए जा रहे थे
उनकी खुशियों के छलकते पैमाने देखे जा रहे थे
यकीन न था हमें कि कभी हम उनसे रूबरू होंगे
ना था पता कि हम उनके अलफ़ाज़ सुनेंगे

उस शाम भी कुछ हाल-ऐ-दिल ग़मगीन था
फिजा थी रूहानी फिर भी दिल परेशान था
हुआ हमें कुछ एहसास उस लम्हे का
कि उनके लफ्ज़ कानो में हमारे, हमसे कुछ कह गए
सामने वो खड़े थे हमारे शायद
हम उनका अक्स समझ वहाँ से गुज़र गए


अनजान हम सफर सिफर का तय करते गए
हर शाम तन्हाई के आलम में जिए गए
जिन लम्हों में जब उनसे हम मिला करते थे
उन्ही लम्हात में हम उनसे दूर चले गए