Wednesday, January 16, 2013

अधूरी कविता

अधूरी भ्रान्ति अधूरे क्षण
अधूरे हैं जहाँ सारे प्रण
अधूरी शांति अधूरे रण
अधूरे हैं यहाँ सत्ता के कण

राष्ट्र ये मेरा आज अधुरा है
सत्ता के भूखों से भरा है
जीवन यहाँ आज निर्बल है
जनता की सोच भी दुर्बल है

अधूरी सोच नेताओं की
अधूरी होड़ प्रशाशन की
अधुरा यहाँ हर कृत्य है
अधूरे सपने यहाँ अपने हैं

राष्ट्र आज तो स्वतंत्र है
कहने को यहाँ प्रजातंत्र है
फिर भी लगता अधुरा है
चूंकी जनता यहाँ निर्बल है।। 

2 comments:

Freddie said...

Sahi farmaya.

ankahe alfaz said...

"राष्ट्र आज तो स्वतंत्र है
कहने को यहाँ प्रजातंत्र है....."

Sir these two lines of your were full of sarcastic essence...