शाख वो काट रहे, उसी शाख पर बैठ
कि कुदरत की नेमत पर कर रहे घुसपैठ
शाख पर हुई चोट से दरख़्त सकपकाया
आंधी के झोंके में उसने उस इंसां को गिराया
चोट लगी उसपर तो इंसां चिल्लाया
शर्मसार नहीं हुआ ना उसको समझ आया
उठा कुल्हाड़ा उसने दरख़्त पर चलाया
इस हिमाकत पर उसकी सरमाया भी गुस्साया
आसमाँ में बादल गरजे, धरती भी गरमाई
कुछ पलों उस मेहमाँ को माटी ने भींचा
उस दरख्त की जड़ों को उसके लहू से सींचा
भूला भटका था वो जिसका वजूद मिट गया
इतना भी ना समझा उसने की माटी में मिल गया
उसी दरख़्त के साए में मिला था उसको आराम
उसी दरख़्त के पत्तों से बिछा था दस्तरखान
काटने उस शाख को तू चला था इंसान
जिसपर लगे फलों की मिठास से था तू अंजान
This Blog is collection of my poems that come to my mind on the situational feelings / thoughts that cross through my mind. They are either based on real life event or are based on inspirational line from my readings. They are just the work of art & have No connection to My personal Life in General. 20/11/2012 - Even though I had stated that my poems are just work of art, but some of my poems have been Presented Negatively so I have taken them off
Friday, September 9, 2016
दरख़्त
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