Friday, September 9, 2016

दरख़्त

शाख वो काट रहे, उसी शाख पर बैठ
कि कुदरत की नेमत पर कर रहे घुसपैठ
शाख पर हुई चोट से दरख़्त सकपकाया
आंधी के झोंके में उसने उस इंसां को गिराया
चोट लगी उसपर तो इंसां चिल्लाया
शर्मसार नहीं हुआ ना उसको समझ आया
उठा कुल्हाड़ा उसने दरख़्त पर चलाया
इस हिमाकत पर उसकी सरमाया भी गुस्साया
आसमाँ में बादल गरजे, धरती भी गरमाई
कुछ पलों उस मेहमाँ को माटी ने भींचा
उस दरख्त की जड़ों को उसके लहू से सींचा
भूला भटका था वो जिसका वजूद मिट गया
इतना भी ना समझा उसने की माटी में मिल गया
उसी दरख़्त के साए में मिला था उसको आराम
उसी दरख़्त के पत्तों से बिछा था दस्तरखान
काटने उस शाख को तू चला था इंसान
जिसपर लगे फलों की मिठास से था तू अंजान

No comments: