Saturday, May 26, 2012

हृद्याग्नी

जीवन में झेले दुःख अत्यंत
सुख की नहीं मुझे कोई आशा
अश्रुओं से में अपने 
हृदयाग्नी भडकाता हूँ
कुछ ऐसे ही मैं इस संसार में 
अपना जीवन यापन करता हूँ

ना ही अब कोई आस है
ना ही निरास जीवन से कोई भय
निर्मोही निरंकार हो चला मैं 
अपने ही ह्रदय को आहात करता हूँ
ना मैं औषध ढूँढता हूँ 
ना करता हूँ वैद से बात

आघात ह्रदय को जब पहुंचता है
आह अधर से निकलती है
फिर भी निर्मम होकर मैं
ये हृदयाग्नी जलाता हूँ
लाज नहीं अब मुझे कोई 
क्योकि ऐसे ही मैं जीवन यापन करता हूँ

जीवन में झेले दुःख अत्यंत
फिर भी में हँसता रहता हूँ
अश्रुयों से अपने ही मैं
हृदयाग्नी भडकाता हूँ
लाज नहीं अब मुझे कोई
क्योकि ऐसे ही मैं जीवन यापन करता हूँ


1 comment:

Anonymous said...

vyartha hai ye jeevan jiski hridayagni desh ke kaam naa aayi
bahut avsar miley they tujhako par baat teri samajh mein naa aayi
ab baitha hai munh latkaa ke sochataa hai kya nirmohi
isi hridayagni mein se tu jalata agar vijay deep
to desh ka sachcha poot kehalaata