Tuesday, May 22, 2012

जीवन प्रण

धीर धर बैठे हैं धरा पर
बादलों की ओढ़ चादर
ना अब चाह है सुरबाला की
ना है कोई चाह मधुशाला के
अधरों पर अब है देव मंत्र
मष्तिष्क में है निर्मोह का तंत्र
साधू बन कर रहे हैं तपस्या
ना है अब जीवन में कोई आस
अटल है अब मेरा ये प्रण
नहीं हारना है जीवन रण
बहुत बहा नैनों से नीर
बहुत हुआ जीवन अधीर
निर्मोही बन करना है बसेरा
निकल अंधियारे से देखना है सबेरा


1 comment:

Anonymous said...

aankhein khol ke baitho, batti jala ke baitho aur dekho gyaan prakaash