Monday, January 2, 2012

व्याकुल मन

भोर भई सूरज उंगने को है
पर ये व्यथा कैसी ह्रदय में है
नींद नहीं आँखों में
चंचल चित भी चिंतित है

कोई तो पीड़ा है इसे
व्यक्त नहीं करता उसे
निद्रगोश में जाने से
क्यों व्यर्थ व्याकुल है

मनन चिंतन भी अब व्यर्थ है
कठिन अब दिवस व्यापन है
घनघोर पश्चाताप को व्याकुल
निराधार ये पागल है

ना समझ है ये ना सुनता है
ना ही ये कुछ कहता है
अब तुम्ही इसे समझाओ
कि ये तो सिर्फ तुम्हे ही मानता है

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