विलुप्त हो गए जाने कहाँ शब्द
सूख गयी मेरी कलम की धारा
जाने कहाँ कहाँ विचर रहा मेरा मन
क्यों न फूंक रहा ये मेरी कविता में जीवन
सुबह सवेरे जब उठता हूँ सुन चिडियों की तान
लगता है जैसे भर गया हो नवजीवन में प्राण
पर जब बैठता हूँ लिखने मैं कविता
ना जाने क्यों कलम खो बैठती है अपनी अस्मिता
सोचता हूँ देख शिव शंभू की प्रतिमाला
कहीं गूंथ जाए मेरे शब्दों की माला
पर ना जाने क्यों ये द्विविधा बन गई है हाला
नहीं उतरता अब मेरे कंठ से मेरे ही शब्दों का निवाला
जाने कहाँ विलुप्त है मेरे शब्दों की माला
सूख गया है मसनी का भी प्याला
मेरा मन ना कहता है अब कोई कविता
मेरी कलम भी भूल चली अपनी अस्मिता||
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