मयंक ने शायद 1999 में ये कविता मुझे सुनाई थी| आज कुछ पुराने पन्नों से वो सामने आई तो सोचा मयंक की कविताओं के इस समूह में उसे भी जोड़ दूं -
कविता तुम पर क्या कविता लिखूँ
कि तुम खुद प्राकृतिक कविता हो
तुम्हारी सादगी और शालीनता ने
तुम्हारे सौंदर्य को और भी निखारा है||
उस पल जब देखा तुम्हें उस भीड़ में
लगा जैसे तारों के बीच चंदा हो
जब सुनी तुम्हारी मधुर वाणी
लगा जैसे वीणा की तान हो||
सोचता हूँ किस सरलता से
ईश्वर ने तुम्हें सुन्दर रूप दिया है
क्या कहीं कोई ऐसा गुण नहीं
जो वो तुम्हें देना भूल गया हो?
कविता तुम पर क्या कविता लिखूँ
कि तुम खुद प्राकृतिक कविता हो
तुम्हारी सादगी और शालीनता ने
तुम्हारे सौंदर्य को और भी निखारा है||
उस पल जब देखा तुम्हें उस भीड़ में
लगा जैसे तारों के बीच चंदा हो
जब सुनी तुम्हारी मधुर वाणी
लगा जैसे वीणा की तान हो||
सोचता हूँ किस सरलता से
ईश्वर ने तुम्हें सुन्दर रूप दिया है
क्या कहीं कोई ऐसा गुण नहीं
जो वो तुम्हें देना भूल गया हो?