Tuesday, February 7, 2012

चंद जवाब, महफ़िल में उठे सवालों के

चंद शेर जो महफ़िल में कहे और चंद जो रह गए अनकहे, उनको पेश करता हूँ आपकी नज़र-ऐ-इनायत के लिए

खामोश जुबां से जो उनका नाम लेते हो
अपने होंठों के चिलमन से उसे छुपाए जाते हो
गर ये जज्बा-ऐ-दिल निगाहों से बयाँ करते
तो हया के नूर से सजे एक चाँद लगते
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उनके आने की आहट पर यूँ धड़कने ना बढाओ
कि उन्हें देख कहीं धड़कने थम ना जाएँ
ज़रा काबू में लो इन तेज साँसों को
कि कहीं उन्हें तुम्हारी बेताबी का इल्म ना हो जाए

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प्यार का गर दुनिया को इल्म होता
तो जहाँ में शिरी-फरहाद का अलग मुकाम होता
ना कर यूँ शिकवा अपने फनाह होने का
कि इश्क पर फनाह मजनू को दीवाना कहते हैं
गर है अपने प्यार पर एतबार
तो उठ ऐ आशिक, अपने प्यार को रुसवा ना कर

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तसव्वुर-ऐ-एहसास को नजराना गर कहते हो
तो हर रात हमारी नज़रानो से घिरी है
गर नाज़-ऐ-उल्फत का पैमाना निगाहों में लिए बैठे हो
तो हर महफ़िल हमारी मयखाने में सजी है
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कोई इन धडकनों से कह दो कि ये आवाज़ ना करें
कि इनको आवाज़ से उनके क़दमों कि आहट नहीं सुनती
कोई इन साँसों से तो कह दो कि ये रफ्ता रफ्ता ही चले
इनकी तेजी में उनके इस ओर रुख करने कि महक नहीं आती
हमारी निगाहों से कोई तो पलकों का चिलमन उठा दो
कि उस चिलमन से हमारी निगाहों की हया बयाँ नहीं होती


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