Sunday, February 5, 2012

चंद अल्फाज़ गम-ऐ-बेखुदी के

उनकी मंजिलों में अपनी राहें ढूंढता फिरता हूँ
एक फकीर हूँ मैं चिरागों में रौशनी ढूँढता हूँ
गर मेरे रकीब से पूछोगे कि किस राह गुज़रा हूँ मैं
तो पाओगे की अपनी ही कब्र में बसेरा ढूँढता हूँ मैं

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तवज्जो ना कर किसी की किनारे बैठ कर
गर हिम्मत है तो मजधार में कश्ती उतार
किनारे बैठ राह उनकी यूँ तक रहे हो
खुदाया ना करे की वो कश्ती में हो सवार
यूँ तुम बैठ उम्र अपनी गुज़ार दो इस कदर
और वो हो कि मजधार में परेशाँ हों

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