Thursday, December 11, 2014

आरज़ू

यूँ ही न भुला देना तू मुझको
कि तेरी ही राह का मैं मुसफिर हूँ
यूँ ही न ठुकरा देना तू मुझको 
कि तेरा हमसफ़र बनने का ख्वाहिशमंद हूँ

बहुत मुद्दतों के बाद तू है मिली मुझको
यूँ ही सरे राह दामन न छोड़ देना
बड़ी मुश्किलों से ये बंधन बना है
यूँ ही जज्बातों में इसे न बहा देना

एक शिद्दत से जिसका था मुझे इंतज़ार
उस ख़ुशी को मेरे दमन से चुरा न लेना
जिस साथ के लिए बना था तेरा राहगुजर
उस राह पर अपना हाथ मुझसे छुड़ा न लेना

यूँ ही न भुला देना तू मुझको
कि शिद्दतों मैंने अपने वजूद की जंग लड़ी है
गुमनामी के अंधेरों में बहुत रहा मैं
अब तेरी बाँहों में दम तोड़ने की आरज़ू है||

No comments: