आशा की वो किरण बन कर आई थी तू
और ना जाने कैसे ज्वाला बन गई
जीवन अन्धकार दूर करते करते
ना जाने कैसे चिता प्रज्वलित कर गई
मानसिक संतुलन को स्थिर करते करते
ना जाने कैसे मानस को असंतुलित कर गयी
कभी बालिका, कभी भगिनी, कभी माता, कभी भार्या
इस काया में थी, कब तू रणचंडी बन गई
आशा की वो किरण बन कर आई थी तू
तो कैसे क्रोधाग्नि बन जीवन भस्म कर गई
जीवन अंधका दूर करते करते
कैसे तू चिता प्रज्वलित कर गई
क्या है तेरा स्वरुप आज कैसे करूँ तेरा विश्वास
जीवनसंगिनी बनी थी तू कल मेरी
आज जीवन भवन ध्वस्त कर गयी
क्या है तेरी महिमा नारी क्या है तेरी मंशा
क्यों तू रूप बदलती है क्यों करती है नखरे
तेरे हर स्वरुप को पूजा है नर ने
तेरी की सदा वन्दना
फिर क्यों जीवन भस्म कर
तू
चिता प्रज्वलित कर गई?
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