बिन बादल इस पहर लगी बरखा की झड़ी
अंतर्मन को जाने क्या गया चीर
नैनो से ढलक गया जाने क्यों नीर
प्रकट कर गया जैसे वो ह्रदय की पीड
जाने कौन सी गाथा जिसमें उलझा चित्त
गया जिसमें जीवन का सपना मिट
ना जाने कौन सी बेला है कि टूटा हर सपना
भूल गया जिस पल मानव मोल ही अपना
बिन बादल जो बरसा आज पानी
सर्द कर गया जीवन संध्या
पीड उभर आई कोई जानी अनजानी
कर गयी कुछ अनमोल विचारों की ह्त्या
द्वंद्व मचाया इस बरखा ने कुछ ऐसा
सागर मंथन से हलाहल निकला हो जैसा
गटक इस हलाहल को चला मानव जीने
कर निश्चय अपने ही नैनों के नीर को पीने||
1 comment:
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