जब कभी कविता की पंक्तियाँ पढ़ता हूँ
तो भाषा का अनुचित प्रयोग का ज्ञान होता है
हिंदी में कही जाने वाली पंक्तियों में
अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश होता है
ना जाने कहाँ विलीन हो गई है परिपक्वता
अब तो काव्य की रचना मैं भी है अराजकता
भावनात्मक विश्लेषण भी अब नहीं है होता
कहीं विलुप्त होती कला का ही आभास है होता
संदेश से मैं भावविभोर कैसे हो सकता हूँ
जब अपनी ही मातृभाषा की पीड़ा देखता हूँ
क्षोभ होता है मुझे ऐसे कवियों पर
बनाते है पुष्पमाला काँटे पिरोकर
बस अब एक ही विनती है जन जन से
कुछ तो प्रयत्न करो अपने हृदय से
मशतिष्क को ना घेरो ऐसे विडम्बना से
कि कहीं विलुप्त ना हो जाए भाषा प्रचलन से।।
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