कहीं दिन कहीं रात की है बात
कि लफ़्ज़ों से मुलाक़ात की है बात
नहीं कोई शिकवा किसी लम्हे से हमें
गर इस नज़्म का तकल्लुफ़ ना हो तुम्हें
कि यहीं एक बात से निकलती है एक बात
कहीं दिन तो कहीं रात में गुज़रती है बात
लफ़्ज़ों से कहीं तो कहीं अदाओं से कही बात
कहीं निगाहों से कहीं आब-ऐ-तल्ख़ से कही बात
ज़िंदगी के हर रूख से निकली हुई बात
कहीं हँसती हंसाती कहीं रोती से ये बात
हर मोड़ पर उठती हुई एक नए रूख की बात
की लफ़्ज़ों से मुलाक़ात में निकली हुई बात
नहीं इस बात मैं गर कुछ है तो मेरे जज़्बात
नहीं इस बात में गर कुछ है तो वक़्त ओ हालात
गर इस बात में अब भी कुछ है तो है लफ़जात
क्योंकि इन्हीं लफ़्ज़ों से तो बनती है हर एक बात।।
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