धर्मान्धता की आंधी चली
उसमें बह चली राष्ट्र की अस्मिता
तुम बोले मैं बड़ा, हम बोलेन हम बड़े
किन्तु क्या कभी सोचा है राष्ट्र हमसे बड़ा
पहले मानव ने धरा बांटी
फिर बने धर्म के अनुयायी
ना जाने कहाँ से पैदा हुए नेता
ले आये बीच में धर्मान्धता
मानव को मानव से बांटा
चीर दी धरा की छाती
लकीरें खींच दी सर्वशक्तिशाली पर
खड़े हो हाशिये पर
ना आज मानवता जीवित है
ना है राष्ट्रप्रेम से कोई नाता
हर छोर पर दिखती है आज
धर्मान्धता ही धर्मान्धता॥
No comments:
Post a Comment