Friday, July 27, 2018

एक चाह

रुसवाई से रुखसत होने की हमारी चाह है 
आज क़यामत तक जीने की चाह है 
दोजख से फिर निकल आने की चाह है 
हमारी तन्हाइयों में तुमसे रूबरू होने की चाह है 

आब-ऐ-तल्ख़ से रुखसत की एक चाह है 
इश्क की खुमारी से निजात की एक चाह है 
ज़िन्दगी के स्याह पन्नो को जलाने की चाह है 
उनमें बसी तन्हाइयों में तुमसे रूबरू होने की चाह है 

निकल पड़े हैं हम सफर-ऐ-ज़िन्दगी पर 
हर मोड़ पर सिर्फ तुमसे मिलने की चाह है 
बेआबरू और बेगैरत बन निकले है सफर पर 
राह के हर दरख़्त तले तुमसे मिलने की चाह है 

ज़ुल्फ़ों में तुम्हारी उम्र बसर करने की गुजारिश लेकर 
तन्हाइयों में तुमसे रूबरू होने चले आये हैं 
बेआबरू और बेगैरत बन सफर पर निकल आये हैं 
ज़िन्दगी के सफर को तुम्हारी बाहों में ख़त्म करने आये हैं

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