धधकती ज्वाला में खोया है हर कोई
ना अपनों में ना परायों में पाया है कोई
दुःख की तपिश में आज जीता है हर इंसान
सुख की ललक में बन रहा वो हैवान
था वक़्त कभी जब अपनों में बैठा करते थे
दुखों की ज्वाला पर अपनत्व का मलहम लगाते थे
था वक़्त कभी जब बच्चे परिवार में पलते थे
अपनों में रह अपनत्व का भाव सीखा करते थे
आज हर इंसान अपनों से दूर है
अपनत्व की हर शिक्षा से आज वो अनभिज्ञ है
अपनों से बढ़कर आज मैं में जीता है
अपनत्व से बढ़कर अहम के भाव में खोता है
धधकती ज्वाला में खोया है हर कोई
अपनों से दूर अपने ही अहम में खोया है हर कोई
दुःख की तपिश में आज जीता है हर इंसान
अपने ही अहम के साये में बन रहा वो हैवान॥
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