Sunday, June 23, 2013

वर्षा ने धरा पर संहार किया

कारे बदरा कारे मेघा
बरसे ऐसे अबके बरस
घाटी में वो नीर बहा,
जन जीवन हुआ नष्ट
देवों की घाटी थी वो,
जहां वर्षा ने संहार किया

हजारों के प्राण लिए,
लाखों को बेघर किया
अबके बरस मेघा ऐसे बरसे
धरा पर नरसंहार हुआ
जो वर्षा करती थी धरा का श्रृंगार
उसने ही नरसंहार किया

प्रकृति का प्रकोप कहें इसे
या कहें मानव का लोभ
केदार के धाम में भी
अस्त व्यस्त हुआ जीवन
घाटी थी वो देवों की
जहां ये संहार हुआ

प्रकृति से कर खिलवाड़
मानव ने विनाश किया
चहुँ और हाहाकार मची थी,
पर मानस था लाचार
जल से जो जीवन चलता है,
उस जल की ही वो भेंट चढ़ा

अबके बरस मेघा ऐसे बरसे
 कि जैसे प्रकृति की कोपदृष्टि
छोड़ देवालय को
नष्ट हुआ सारा प्रांगण
प्रकृति का ये क्रोध ही था
किया जो तुमने खिलवाड़

काट वृक्षों को बना जलाशय
घर अपना तुम भरते गए
फिर अतिवृष्टि से जो जल बरसा,
उस जल में तुम बह गए
क्यों रुदन अब करते हो,
जब अपनी ही कृति से नष्ट हुए

जो वर्षा करती थी धरा का श्रृंगार
 उसने ही संहार किया
अबके बरस कुछ ऐसे बरसे मेघा
कि हर ओर जन जीवन नष्ट हुआ
अपनी कुकरनी से मानव पर
प्रकृति के कोप का प्रहार हुआ


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