सूखा दरिया सूखा सागर
ख़ाली आज मेरा गागर
सूखे में समाया आज नगर
हो गई सत्ता की चाहत उजागर
बहता था पानी जिस दरिया में
आज लहू से सींच रहा वो धरा को
अम्बर से अंबु जो बहता था
आज ताप से सेक रहा वो धारा को
सूखा आज ममता का गागर
सूखी हर शाख़ हर पत्ता
नहीं छूटता फिर भी मोह मगर
लालच के परम पर है सत्ता
पैसे की धूम है हर ओर
नहीं इस लालच का कोई छोर
कितना तुम अपना गागर भरोगे
कितनो को और प्यासा मारोगे
जिनके श्रम से है अपनी तिजोरी भरी
आज उनकी लाशों से है धारा भारी
बोझ ये तुम कर सकते हो हल्का
छोड़ कर लालच इस सत्ता का!!
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