साँझ पड़े बैठा नदिया किनारे
सोच रहा मैं बैठ दरख्त के सहारे
कितनी सरल कितनी मधुर है ये बेला
है कौन सा ईश्वर का ये खेला
संगीतमय है जैसी ये लहरों की अठखेलियाँ
कितनी मद्धम है पंछियों की बोलियाँ
कहीं दूर धरा चूमता गगन
कौन से समय में लगाई ईश्वर ने इतनी लगन
कितनी सुहानी लग रही है ये बेला
देख रहा था नदिया में मैं मछलियों का खेला
साँझ पड़े बैठा नदिया किनारे
देख रहा ये मंज़र मैं बैठ दरख्त सहारे
कैसी है यह ईश्वर की श्रिश्टी उसकी माया
सोच रहा मैं जब साँझ का धुँधलका छाया
संध्या सुहानी, मधुर थी वो बेला
देख रहा था सारा मंज़र बैठ मैं अकेला
विचारों की गति थी जैसे नदिया की धारा
ग़ज़ब लग रहा था मुझे जग सारा
कैसी है यह ईश्वर की माया, कैसी उसकी श्रिश्टी
ना जाने किस दिन बन जाएगा यही सब माटी।।
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