Saturday, November 21, 2015

ना आज कोई रुख़्सार

नज़रों के सामने हमने वो देखा है
हर हस्ती को आज हँसते देखा है
ख़ुशनुमा आज हर रूह है
शबनम भी आज चमकती चाँद सी है

फैला है उजाला हर और 
बयार भी हल्की हल्की बहती है
आज क़ुदरत का नग़मा
सुन रहा मैं हर और

ना किसी की आज तवज्जो है
ना कोई कर रहा इंतेज़ार
ना आज अश्क़ हैं आँखो में
ना कोई कहीं रुख़्सार

नज़रों से आज हमने वही देखा है
ना तंज़ है कोई ज़िंदगी से
ना हमें कोई शिकवा किसी से
ना ही किसी है है अब इंतेज़ार

देखा था ख़्वाब जिनका
दूर फलक पर हुए वो जुदा
खो कर भी उन्हें लगता है आज
ज़िंदगी है मेरे खुदा तेरा ही साज

ना शिवा कोई हमें जुदाई का
ना कोई गिला बेवफ़ाई का
ना अश्क़ हैं आँखों में कोई 
ना कहीं मेरा कोई रुख़्सार





Sunday, November 15, 2015

कैसी ईश्वर की श्रिश्टी

साँझ पड़े बैठा नदिया किनारे
सोच रहा मैं बैठ दरख्त के सहारे
कितनी सरल कितनी मधुर है ये बेला
है कौन सा ईश्वर का ये खेला

संगीतमय है जैसी ये लहरों की अठखेलियाँ
कितनी मद्धम है पंछियों की बोलियाँ
कहीं दूर धरा चूमता गगन
कौन से समय में लगाई ईश्वर ने इतनी लगन

कितनी सुहानी लग रही है ये बेला
देख रहा था नदिया में मैं मछलियों का खेला
साँझ पड़े बैठा नदिया किनारे
देख रहा ये मंज़र मैं बैठ दरख्त सहारे

कैसी है यह ईश्वर की श्रिश्टी उसकी माया
सोच रहा मैं जब साँझ का धुँधलका छाया
संध्या सुहानी, मधुर थी वो बेला
देख रहा था सारा मंज़र बैठ मैं अकेला

विचारों की गति थी जैसे नदिया की धारा
ग़ज़ब लग रहा था मुझे जग सारा
कैसी है यह ईश्वर की माया, कैसी उसकी श्रिश्टी
ना जाने किस दिन बन जाएगा यही सब माटी।।