बैठ ताल किनारे दरख़्त सहारे
देख रहा मैं मछरियों का खेला
कैसे अठखेलियाँ वो करती
कैसे एक एक दाने पर झपटती
ऊपर शाख पर बैठ बगुला भी
देख रहा था सारा खेला
एक दांव में गोता लगा कर
चोंच में भींच लेता मछरी
क्षण भर के इस हमले से
सहम सी जाती मछरिया
गोता लगते बगुले से बचने
चंहूँ और बिखर जाती
बैठाताल किनारे दरख़्त सहारे
देखा मैंने सारा मंजर
सोच मैंने होता कुछ ऐसा ही
जब आजा समय चुनाव का
अठखेलियाँ करती जनता
पल भर को सहम सी जाती
कौन चुनकर आएगा शाषन करने
कौन चुसेगा लहू अब मेरा
हर नेता दिखता बगुले सा
जो आता पांच बरस में एक बार
छेड़ कर हमारी सोच को
तितर बितर कर देता हमको
समय का खेला खेलता संग हमारे
माँगता मत घर घर जाकर
फिर जीत चुनाव होता ऐसा गायब
ढूंढे ना मिलता वो फिर गली या चौबारे पर
रगड़ एडियाँ वंदना करता वो हमारी
प्रगति के रोजगार के दिखाता वो सपने
कर जाग्रत दिवास्वप्न हमारे
छोड़ जाता हमें रगड़ने को अपनी एडियाँ
क्या यही चाहा था हमने स्वंत्रता का स्वरुप
क्या यही था सपना हमारा कि देखे उनका गरूर
बैठ ताल किनारे दरख़्त सहारे
देख रहा था में चुनावी मंजर
हर नेता यहाँ बगुला है
और जनता बनती मछरी
बैठ टाक किनारे दरख़्त सहारे
देख रहा था मैं सारा मंजर||
No comments:
Post a Comment