जिद्द थी मेरी को तुझे देखूं
थी चाह असीम तुझे पाने की
हद्द ये थी मेरी चाहत की
कि ही थी जिंदगी की जुत्सजू
आलम इस कदर था जिंदगी का
कि हर पल तेरी ही ख्वाहिश थी
रोक ना सके खुद को ऐ राहगुज़र
तेरी बंदगी की ये बेताबी थी
क्या कहें कि तेरे दीदार से आज
ना दिल की वो खलिश मिटी
ना ही इज़हार-ऐ-ख्वाहिश हुई
हमारी मुलाक़ात कुछ अधूरी थी
एक दूरी थी उन पलों में सिमटी
एक तन्हाई सी थी साथ तेरे
ना हम कुछ कह सके तुझसे
ना ये मुलाकात चढी अपनी मंजिल
थी चाह असीम तुझे पाने की
हद्द ये थी मेरी चाहत की
कि ही थी जिंदगी की जुत्सजू
आलम इस कदर था जिंदगी का
कि हर पल तेरी ही ख्वाहिश थी
रोक ना सके खुद को ऐ राहगुज़र
तेरी बंदगी की ये बेताबी थी
क्या कहें कि तेरे दीदार से आज
ना दिल की वो खलिश मिटी
ना ही इज़हार-ऐ-ख्वाहिश हुई
हमारी मुलाक़ात कुछ अधूरी थी
एक दूरी थी उन पलों में सिमटी
एक तन्हाई सी थी साथ तेरे
ना हम कुछ कह सके तुझसे
ना ये मुलाकात चढी अपनी मंजिल
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