Wednesday, November 3, 2010

दास्तान आंसुओं की

आंसुओं की दास्ताँ न पूछ मुझसे
कि आंसू तो यूँही निकल पड़ते हैं
थामना भी चाहूँ इन्हें
मगर तेरी याद में बह निकलते हैं

Monday, November 1, 2010

Dedicated Corruption

Looking Back when it was at Prime
Government went to declare it Crime
Corruption was taken as an Offense
To the extent it penetrated in Defense
Height was when it entered the Coffin
With our Ministry eating foreign Muffin

Long back they went buying Cannons
Seems they took some from Memmons
Money moved with Leaders Hand in Hand
Leaving the Nation on the Bus Stand
Probe started and went for ages
Culprits even went out of life's cages

There were many other scams to count
We can sit to pile and create a mount
They went to eat the Animal Food
Telephone connections went to Wood
Security cordons put to stake for Land
Irregularities went to Wireless Band

But one thing that came clear
Dedication to Corruption is here
It is here to stay with no move
Even if it cause Government to cove
I say regularize the commission
Cut the pay to move this Motion

Sunday, October 31, 2010

Its Not Perfect When I Think it is!!!

When I met you the first
my throat was dry not from thirst
though I liked the way you looked
never liked the way your words spooked
As we met again and I knew you a day
you appearance changed to pave the way
your thoughts and your words
came to my ears as chirping birds
I thought may be I was wrong
liked those lyrics of friendship song
But I guess I was wrong
the distance between us hit the gong
I miss your voice and your words
may be that's the wish from the lords
looking down the way I miss
the warm hug and the sweet kiss
May be I need to change the way I think
to understand times' beautiful wink
that we met as we were destined
where your beauty turned me blind
I now need to open my eyes
my ears must hear the byes
Byes coming from your message
though it hurts like estrange

Friday, June 25, 2010

गर नज़रों में उनकी

गर तनहाई में खुदा का दीदार मयस्सर ना हो
गर जुदाई में मोहब्बत का दर्द शामिल ना हो
गर झुकी इन पलकों में हया का डेरा न हो
क्या कहूँ में ऐ मेरे मौला
गर ज़िन्दगी में जूनून का असर ना हो
गर जुल्फों में उनकी मेरा आसरा न हो
गर नज़रों में उनकी मेरी तस्वीर ना हो
कि ये मोहब्बत नहीं मेरा पागलपन है
गर मुझपर उनकी नज़र-ए-इनायत ना हो

Monday, April 19, 2010

चाहत

गर हम दिन के पहलु में बैठें
या रात के आगोश में समां जाएं
शाम-इ-सनम हमें न मिल सकेगी
दीदार-इ-सनम न हो सकेगा
गर चाहत सनम कि है दिल में
शाम का पहलु ना छूट सकेगा

इन्तेजार-ए-सनम

नाम गर लिखा हो सनम का शाम पर
जा उसके आगोश में उसका दीदार कर
उसकी साँसों के तरन्नुम में खो कर
अपने इश्क का इज़हार कर
गर ना हो एतबार अपने लबों पर
अपनी आँखों से तू बयान कर
गर गिला हो कोई तो खुदा से अर्ज़ कर
मिलेगा तुझे भी सनम इंतज़ार कर
कि है क्या मज़ा उस दीदार में
जिसकी नज़्म ना लिखी हो इंतज़ार में
हर लफ्ज़ जिसका लिखा हो तेरे आंसुओं से
हर कतरा जिसका सींचा हो तेरे लहू से
कि गर सनम का नाम लिखा हो शाम पर
कहता यही है फ़कीर - इंतज़ार कर इंतज़ार कर

Thursday, April 8, 2010

मेरा अक्स

गर खुदा ने कभी मुझसे कहा होता...
रुखसत हो तू हो फारिग अपनी कलम से
मैं कहता ऐ-खुदा
ये कलम है मेरी ज़िन्दगी मेरी तमन्ना
कि ना कर इसको जुदा तू मुझसे
न कर मेरे इश्क को रुसवा
गर कहीं मैं हूँ कगार पर
तो यही है वोह मेरा अक्स....

Tuesday, March 9, 2010

तिरंगे कि कहानी

काफी दिनों से मन में गुबार था
तिरंगे की कहानी का अम्बार था
कि सोचा बहुत कैसे कहूँ
लेकिन दर्द ऐसा है कब तक सहूँ

हुआ कुछ यूँ कि तिरंगा मिला सपने में
कहानी थी उसकी इतनी सर्द
ना थी उसमें हद्द
अब कैसे सहूँ में ये दर्द

तिरंगा खुश होता गर
उसे शहीद पर चढ़ाया जाए
उसे लाल किले कि प्राचीर पर फहराया जाए
उसे आजादी का परचम बनाया जाए

तिरंगा दुखी है क्योंकि
उसे भ्रष्ट नेताओं पर लहराया जाता है
उसे गुंडे बदमाशों कि गाडी पर पाया जाता है
उसे सरे आम बेईज्ज़त किया जाता है

कहना है तिरंगे का कुछ यूँ
कि उसे हर घर पर लहराना है
उसे हमारे दिलों में बस जाना है
उसे जात पात से परे जाना है

चाह है उसकी उस पुष्प सी
कि उस पथ पर दें उसको फहरा
मातृभूमि की सेवा में
जिस पथ चले वीर अनेक
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आखिरी कुछ पंक्तियाँ श्री माखनलाल चतुर्वेदी कि कविता - "पुष्प की अभिलाषा" से प्रेरित हैं|

Sunday, March 7, 2010

वक़्त नहीं

आज के दौर में हर किसी को बहुत कुछ पाने कि चाह है और इस चाह में उन्हें अपनों का ध्यान नहीं, ना ही उनके पास वक़्त है अपनो के लिए| इस कविता में कवी ने उसे बड़े ही नायब तरीके से ज़ाहिर किया है| ये कविता किसने लिखी ये मुझे इल्म तो नहीं, लेकिन ये नायाब कविता में आपके लिए यहाँ लिख रहा हूँ| मुझे ये कविता किसी मित्र ने भेजी है....

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हर ख़ुशी है लोगों के दमन में

पर एक हंसी के लिए वक़्त नहीं .

दिन रात दौड़ती दुनिया में

ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं



माँ कि लोरी का एहसास तो है

पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं

सारे रिश्तों को तो हम मार चुके

अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं



सारे नाम मोबाइल में हैं

पर दोस्ती के लए वक़्त नहीं

गैरों कि क्या बात करें

जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं



आँखों में है नींद बड़ी

पर सोने का वक़्त नहीं

दिल है ग़मों से भरा हुआ

पर रोने का भी वक़्त नहीं



पैसों कि दौड़ में ऐसे दौड़े

कि थकने का भी वक़्त नहीं

पराये एहसासों कि क्या कद्र करें

जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं



तू ही बता ऐ ज़िन्दगी

इस ज़िन्दगी का क्या होगा

कि हर पल मरने वालों को

जीने के लिए भी वक़्त नहीं.......


Wednesday, January 20, 2010

उनका नशा

उनका नशा है कि छुटता नहीं
कदम हैं कि रुक कर उठते नहीं
न उन्होंने हमें यूँ मुड के देखा
न हमनी कभी संभल कर चलना सीखा
राह तकते उनकी झरोखों में दिए जलाया करते हैं
भूलकर कि हवा के झोंकों से दिए नहीं जला करते
खून कि रोशनाई बना कर लफ्ज लिखे थे ख़त में
कि तूफ़ान में वोह लफ्ज भी समंदर से स्याह हो गए
अब क्या कहें हम अपनी जुबां से
कि हलक में वोह लफ्ज भी पथ्थर हो गए

I was always there

If you ever thought
I was never there for you
Then it's more probable
For you to be walking
With a head high
Looking up at the sky
If you ever would have set
Your eyes on the ground
You always would have me
Clearing thorns from your way
I have always been there
Always for you
Just been there on the way

Mayank