Tuesday, March 9, 2010

तिरंगे कि कहानी

काफी दिनों से मन में गुबार था
तिरंगे की कहानी का अम्बार था
कि सोचा बहुत कैसे कहूँ
लेकिन दर्द ऐसा है कब तक सहूँ

हुआ कुछ यूँ कि तिरंगा मिला सपने में
कहानी थी उसकी इतनी सर्द
ना थी उसमें हद्द
अब कैसे सहूँ में ये दर्द

तिरंगा खुश होता गर
उसे शहीद पर चढ़ाया जाए
उसे लाल किले कि प्राचीर पर फहराया जाए
उसे आजादी का परचम बनाया जाए

तिरंगा दुखी है क्योंकि
उसे भ्रष्ट नेताओं पर लहराया जाता है
उसे गुंडे बदमाशों कि गाडी पर पाया जाता है
उसे सरे आम बेईज्ज़त किया जाता है

कहना है तिरंगे का कुछ यूँ
कि उसे हर घर पर लहराना है
उसे हमारे दिलों में बस जाना है
उसे जात पात से परे जाना है

चाह है उसकी उस पुष्प सी
कि उस पथ पर दें उसको फहरा
मातृभूमि की सेवा में
जिस पथ चले वीर अनेक
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आखिरी कुछ पंक्तियाँ श्री माखनलाल चतुर्वेदी कि कविता - "पुष्प की अभिलाषा" से प्रेरित हैं|

Sunday, March 7, 2010

वक़्त नहीं

आज के दौर में हर किसी को बहुत कुछ पाने कि चाह है और इस चाह में उन्हें अपनों का ध्यान नहीं, ना ही उनके पास वक़्त है अपनो के लिए| इस कविता में कवी ने उसे बड़े ही नायब तरीके से ज़ाहिर किया है| ये कविता किसने लिखी ये मुझे इल्म तो नहीं, लेकिन ये नायाब कविता में आपके लिए यहाँ लिख रहा हूँ| मुझे ये कविता किसी मित्र ने भेजी है....

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हर ख़ुशी है लोगों के दमन में

पर एक हंसी के लिए वक़्त नहीं .

दिन रात दौड़ती दुनिया में

ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं



माँ कि लोरी का एहसास तो है

पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं

सारे रिश्तों को तो हम मार चुके

अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं



सारे नाम मोबाइल में हैं

पर दोस्ती के लए वक़्त नहीं

गैरों कि क्या बात करें

जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं



आँखों में है नींद बड़ी

पर सोने का वक़्त नहीं

दिल है ग़मों से भरा हुआ

पर रोने का भी वक़्त नहीं



पैसों कि दौड़ में ऐसे दौड़े

कि थकने का भी वक़्त नहीं

पराये एहसासों कि क्या कद्र करें

जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं



तू ही बता ऐ ज़िन्दगी

इस ज़िन्दगी का क्या होगा

कि हर पल मरने वालों को

जीने के लिए भी वक़्त नहीं.......